निडाना गावँ में चल रही महिला खेत पाठशाला की किसानों ने 23 नवम्बर से 28 नवम्बर,2010 तक हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश का पाँच दिवसीय अनावरण-यात्रा की. इस अनावरण-यात्रा का वित्तपोषण आत्मा स्कीम के तहत कृषि विभाग, जींद ने किया.
अनावरण-यात्रा के लिए महिलाओं का यह जत्था 23 नवम्बर की सुबह सात बजे निडाना गावँ से करनाल के लिए रवाना हुआ. गाँव के सरपंच श्री सुरेश मलिक व् महाबीर मलिक ने इस जत्थे को हरी झंडी दिखाकर निडाना गावं से रवाना किया. इस दौरान बस में बैठे-बैठे ही डा सुरेन्द्र दलाल व् डा.कमल सैनी के मार्गदर्शन में इन महिलाओं ने हरियाणा की फसलों में पाए जाने वाले कीटों पर सामूहिक रूप से चार गीतों की रचना की व रास्ते में ही इनकी रिहर्सल की. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के उचानी स्थित क्षेत्रीय अनुसन्धान केंद्र पहुचने पर कृषि विज्ञानं केंद्र के डा.दिलबाग अहलावत से इस जत्थे की अप्रत्याशित मुलाकात हुई. इस आकस्मिक मुलाकात से डा. साहिब के दिल में उपजी ख़ुशी खून की मार्फ़त उनके चेहरे पर छुपाये नही छुप रही थी. डा. साहिब ही इस जत्थे को डा.सरोज जयपाल की प्रयोगशाला तक लेकर गये. डा. सरोज जयपाल ने भी इस जत्थे को हाथो-हाथ लिया. उन्होंने इन महिलाओं के दो ग्रुप बनवाये.एक ग्रुप को अंदर बुलवाया. डा. साहिब ने इस ग्रुप को गन्ने की फसल में कीट प्रबंधन बारे विस्तार से जानकारी देनी शुरू की. इस बीच डा. दलाल ने डा. सरोज को बताया की महिलाओं का यह ग्रुप आपके पास कीटों की समस्याओं के समाधान वास्ते नही आया है. बल्कि ये तो आपके पास गन्ने की फसल में हानि पहुचाने वाले कीटों की पहचान करने की गरज से आयी हैं. डा जी, सतयुग में ही एक किसान को समस्याग्रस्त देखकर जब पार्वती ने अपने पतिदेव से इस किसान के दुःख दूर करने की प्रार्थना की तो शिव जी ने पार्वती को ही धमका दिया था "किस किस के दुःख दूर करैगी. या दुनिया दुखी फिरै रानी." हैसियती अंहकार से एकदम कोसों दूर डा. सरोज ने इस बात को बहुत ही सहज भाव से लिया और.कहने लगी आप तो दो कीटों की बात कहते हैं. मैं तुम्में कम से कम 6 कीटों की पहचान करवाउंगी. ठीक इसी समय महिलाओं ने भी लैपटाप पर कपास की फसल में निडाना गावँ में देखे गये सभी कीट डा. सरोज जयपाल को दिखाने शुरू किये तथा रास्ते में रचे गये गीतों में से एक "कीटों का कट रहया चाला हे, मनै तेरी सू" की पहली प्रस्तुति देनी शुरू की. स्लाईड देखते-देखते डा. सरोज ने भी इस गीत को गाने में महिलाओं का पूरा-पूरा साथ दिया. यह नज़ारा देख कर इस खेत पाठशाला के कीट प्रशिक्षक किसान रणबीर मलिक व मनबीर रेड्हू की टिप्पणी थी कि डा. साहब समय के साथ ये गीत हिट हो सकते हैं. इसके पश्चात डा. सरोज जयपाल इन महिलाओं को साथ वाली लैब में ले गयी. वहाँ पर रखे कीटों के संरक्षित सैम्पल एक-एक कर महिलाओं को दिखाने लगी. यह है चोटी-बेदक की सूंडी, यह जड़-बेदक की,.. यह तना-छेदक की,... सभी की विशेषताएं बताई,.. असली बात तो यह है की यहाँ वरिष्ठ कीट-वैज्ञानिक और यात्री किसानों के बीच रति भर भी फ़ासला नही था. इन पंक्तियों का लिखने वाला तो डा. सरोज को सुनना व सहेजना भूल मन्त्र-मुग्ध हो वीडियो बनानी व फोटो खीचने ही भूल गया. इसकी स्मृतियों में तो 1981 की साल कीटविज्ञान के प्रारम्भिक कोर्स के प्रैक्टिकल में डा सरोज की शिक्षण-पद्धति ही बार-बार ताज़ा हो आई. गज़ब की शख़्सियत है डा. सरोज जयपाल का. कहीं कोई औपचारिकता नही, कोई खाई नही. सब सहज भाव से.
इसके बाद डा. जी ने इन महिलाओं को कीटनाशकों वाला काम करने वाले छोटे से कीट - ट्राईकोग्रामा व फफुन्दीय रोगाणु- बेवरिया बेसयाना को घर पर ही कम खर्च में पैदा करने की तकनीक विस्तार से समझाई. बेवरिया बेसयाना को लेकर एक नई बहस शुरू हो गयी क़ि कीट प्रबंधन में इस रोगाणु का इस्तेमाल क्या स्तनपाईयों के लिए सुरक्षित है? इस पर डा. सरोज जी बोली क़ि इसका इस्तेमाल बिलकुल सुरक्षित है. पर मनबीर ने सवाल उठाया क़ि अटवाल व धालीवाल की किताब "AGRICULTURAL PESTS OF SOUTH ASIA" के 99वें पेज पर 21वीं लाइन में लिखा है क़ि यह जहरीली फफूंद स्तनधारियों के लिए भी उतनी ही खतरनाक है जितनी कीटों के लिए. डा. सरोज ने इस बहस को यूँ समेटा कि यह रोगाणु है तो सुरक्षित पर पत्ता नही किन सन्दर्भों में उन्होंने ये बात लिखी है. कभी पढ़ कर ही आपको बत्ताऊँगी! इसके पश्चात् महिलाओं के इस जत्थे ने पिंजौर का रुख किया. रास्ते में जी.टी.रोड पर एक भोजनालय पर खाना खाया . शाहाबाद से कोई लिंक रोड पकडकर पिंजोर पहुंचे. पिंजौर गार्डन देखकर चंडीगढ़ के लिए रवाना हुए. रात के साढ़े आठ बजे सेक्टर 28 स्थित हरियाणा के पंचायत भवन पहुंचे. पंचायत भवन में इस जत्थे के लिए ठहराने की व्यवस्था करवाने वाले पंजाब सरकार के उपमहाअधिवक्ता डॉ रणवीर सिंह चौहान मौके पर उपस्थित थे. यहीं कैंटीन में रात्रि का भोजन किया व इसी भवन में रात्रि विश्राम किया. सोने से पहले इन यात्री महिलाओं ने लैप-टाप पर कपास की फसल में इस साल पाए गये मांसाहारी कीटों की स्लाईड देखी.
24 नवम्बर,10 की प्रात: पंचायत भवन की कैंटीन में ही नाश्ता कर यह जत्था नंगल डैम व् भाखड़ा डैम देखने के लिए रवाना हुआ. नंगल डैम देखते हुए यह जत्था दिन के एक बजे भाखड़ा बाँध पर पंहुचा. बांध की ऊँचाई व् जल भण्डारण क्षेत्र का विस्तार देख सभी आश्चर्यचकित रह गये. यहीं चाय पार्टी के दौरान सामूहिक निर्णय हुआ कि अब सुंदर नगर वाया नैना देवी चला जाये. नैना देवी यहाँ से 18 किलोमीटर ही है. एक तो यह मिनी बस बूढी अर उपर से इसमें बैठे यात्री पहाड़ी रास्तों के अभ्यस्त नही थे. नैना देवी पहुँचते-पहुँचते सभी बुरी तरह से थक चुके थे. लेकिन नैना-दर्शन के लोभ ने इस थकावट को दरकिनार कर दिया. सभी बस से उतरते ही नैना-दर्शनों के लिए सीढियों के रास्ते पहाड़ी की चोटी पर चढने के लिए चल दिए. चढ़ाई तो थोड़ी ही थी पर कसूती खड़ी थी. नीचे आये तो शाम के सवा चार बज चुके थे. पहाड़ो के रास्तों से अंजान ड्राईवर एवं यात्रियों के लिए अब सुंदरनगर के लिए प्रस्थान करना समझदारी नही थी. अत: यही नैना देवी ट्रस्ट की एक धर्मशाला में रात्रि विश्राम के लिए कमरे बुक करवाए. सामान रखने के बाद इसी धर्मशाला की कैंटीन से चाय का जुगाड़ किया. चाय पीते-पीते अँधेरा हो चूका था. इस धर्मशाला की बाउंड्री से ही अँधेरे में पहाड़ो की रौशनी का नज़ारा लिया. कैंटीन में रात्रि भोजन करने के बाद महिलाओं ने कीट साक्षरता के विभिन्न आयामों पर चर्चा की व् लैप-टाप पर "महिला खेत पाठशाला" के ब्लॉग पढ़े. मिनी ने "कृषि चौपाल' ब्लॉग पर से एक कहानी "बस यूँ ऐ" सभी को पढ़ कर सुनाई. राजबाला तो ये कहानी सुनते-सुनते कहीं खो गयी. रात को ही जब नेट पर सर्फिंग करते हुए शहीद भगत सिंह, बंगा और खटकड़ कलां की बात चली तो इन महिलाओं ने सुंदरनगर जाने की बजाय अगले दिन खटकड़ कलां विज़िट करने की ठानी.परिणाम स्वरुप 25 नवम्बर,10 को प्रात: जल्दी उठकर सभी फटाफट तैयार हुए. इस धर्मशाला में नहाने के लिए गर्म पानी की व्यवस्था थी. चाय के साथ स्नैक्स लेकर यह जत्था आनंदपुर साहिब, गढ़शंकर व बंगा के रास्ते शहीदे-आज़म भगत सिंह के गावँ खटकड़ कलां के लिए रवाना हुआ. अमृतसर-चंडीगढ़ हाईवे पर बंगा से दो किलोमीटर चंडीगढ़ की तरफ हाईवे पर ही स्तिथ है यादगार संग्राहलय. यहीं से खटकड़ कलां को पहुँच मार्ग जाता है. इस यादगार संग्राहलय के प्रांगण में ही शहीद भगत सिंह की विशाल प्रतिमा लगी हुए है जो दूर से नजर आती है. यादगार संग्राहलय के हाल में किसानों के इस जत्थे ने दो घंटे लगाये. संग्राहलय के हॉल में मुक्ति-कामि आन्दोलन में अंग्रेजी हकुमत के विरुद्ध झंडा बुलंद करने वाले शहीदों, क्रांतिकारियों व स्वाधीनता सेनानियों के दुर्लभ फोटों हैं, शहीद भगत सिंह के बचपन व परिवार के सदस्यों के फोटों हैं. इस संग्रालय में शहीद भगत सिंह के बचपन से जुड़ी चीजें, उसके खून से सन्नी मिटटी व एक अंग्रेजी का अख़बार भी संरक्षित हैं. इसमें भगत सिंह के दस्तावेज़ व उनके दस्तक वाली गीता की कापी भी संरक्षित है.
शहीद भगत सिंह के बचपन व परिवार के सदस्यों के फोटों देखकर ये महिलाएं द्रवित हो उठी और कुछ महिलाओं क़ी आँखों में तो वास्तव में आँसू भी छलक आये. क्रांतिकारियों व स्वाधीनता सेनानियों में सुशीला व दुर्गा भाभी सम्मेत अनेक वीरांगनाओं के फोटो देखकर इन महिला किसानों की प्रतिक्रया थी क़ि हमने तो स्वाधीनता संग्राम में रानी झाँसी का ही नाम सुना था.यहाँ आकर पता चला क़ि हिंदुस्तान की आज़ादी के इस आन्दोलन में महिलाएं भी पीछे नही थी. जिला जींद के खटकड़ गावँ में जन्मी सुदेश का कहना था कि सरजी, हम भी तो आज़ादी क़ी लड़ाई ही लड़ रहीं हैं. अंतर इतना है कि हमारी इन क्रन्तिकारी बहनों ने अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए जंग लड़ी थी और हम कीटनाशकों से मुक्ति के लिए जदोजहद कर रही हैं.
"चट्टनी में गोली" वाले क्रन्तिकारी, क्रांति कुमार का फोटो यहाँ देखकर डा.सुरेन्द्र दलाल ने इन महिलाओं को बताया कि हरियाणा के पानीपत शहर में क्रांति-नगर इसी क्रांति कुमार के नाम पर बसा हुआ. इसी कालोनी में क्रांति कुनार क़ी बेटी उर्वशी व बेटा विनय कुमार रहते हैं.
संग्रालय के प्रांगन में ही "दाना पानी" नाम से एक निजी कैटरिंग सेवा है. इस भोजनालय पर ही महिलाओं ने आज का लंच ग्रहण किया. दाना-पानी का भोजन साफ- सुथरा एवं स्वाद था व सेवा सराहनीय थी.
बाघा बार्डर के लिए रवाना होने के लिए बस में सवार होते ही नन्ही, कमला व प्रकाशी ने एक नया सवाल उठा दिया - अक जी, हमनै फाँसी पर झुलनिये माणस क़ी जीब बाहर लिकड़ी देखी अर् टट्टी भी लिकड़ी देखी पर आज तक खून किसे का लिकड़ा नही देखा. फेर यू मिटटी अर् अख़बार पर भगत सिंह का खून कीत तै लग गया? इसका जवाब इस जत्थे में किसी के पास नही था. यहाँ से बंगा व फगवाडा होते हुए जालंधर पहुंचे. जालंधर से जी.टी.रोड होते हुए अमृतसर पहुचे. सारे रास्ते सड़क पर सरपट दौड़ती मिनी बस की खिडकियों से सड़क के दोनों ओर या तो खरपतवारनासी जहरों से सन्नी हरित क्रांति की हरियाली दिखाई दे रही थी या फिर गावों के रूप में सीमेंट-कंक्रीट के बोझड़े या कस्बों के रूप में सीमेंट-कंक्रीट की बणी या फिर नगरों के रूप में सीमेंट-कंक्रीट के बीड़ ही दिखाई दे रहे थे. अमृतसर पहुँचते ही सबसे पहले गुरु रामदास सराए में रात्रि विश्राम के लिए तीन कमरे बुक करवाए और फिर बिना कुछ खाये-पीये चल दिए बाघा बोर्डर पर परेड देखने के लिए. लेट होने का डर था. हिंदुस्तान व पाकिस्तान के बोर्डर पर परेड देखने का चाव इन महिला किसानों के दिलो-दिमाग पर इस कदर हावी था कि भूख को दिमाग पर हावी नही होने दिया. 28 किलोमीटर के रास्ते में तीन-तीन टोल बैरियर पर ठुकाई के बावजूद शाम को परेड की रस्म अदायगी से पहले ही यह जत्था बाघा बोर्डर पहुँच गया. यहाँ परेड की रस्म देखने के लिए एक खुला थिएटर बनाया हुआ है. इसी की सीढ़ियों पर हमने भी परेड शुरू होने से पहले ही अपनी जगह ले ली. यहाँ दोनों ओर के दर्शकों की ललकार, तालियों की गड़गड़ाहट व नाच-गाना वास्तव में एक रोमांचकारी एवं रोंगटे खड़े कर देने वाला अनुभव था. यहाँ दोनों तरफ के सुरक्षा सैनिकों का परेड के रूप में जमीन पर जोर-जोर से पैर पटकना, गजब की कदमताल व पूरे गुस्से में भर कर गेट खोलना- हमे तो एक तरह से बेमतलब एक-दुसरे को नीचा दिखाने वाला काम ही लगा. बिना एक दुसरे को छुए केवल भाव-भंगिमाओं व शारीरिक-भाषा के बलबूते भी एक-दूजे का क़त्ल किया जा सकता है- यह यहीं आकर व परेड देखकर मालूम हुआ. रास्ट्रीय झंडा झुकाने तक परेड की पूरी रस्म देख कर व अंग्रेजो के मोबईली मसले में उलझे-उलझे वापिस अमृतसर पहुंचे. अमृतसर में पूछते-पूछते गुरु रामदास सराए में रात्रि के लिए अपना ठिकाना ढूंढा. कमरों में अपना सामान रखते ही खोखे से मँगा कर एक-एक चाय पी. डा.कमल सैनी के सुझाव पर आज रात्रि-भोज लंगर में ही करने का निर्णय हुआ. सामने ही शहीद बाबा दलीप सिंह जी के गुरूद्वारे में लंगर चल रहा था. गुरूद्वारे के प्रांगण में पहुच कर मिनी बस को पार्किंग में खड़ा किया और इसी बस में डा. दलाल व सैनी को छोडकर सभी के जूते रखवा दिए गये. लंगर में दाल-रोटी खा कर वापिस आये तो दोनों डाक्टरों को उभाने पाया सराए में आना पड़ा. अंग्रेजो सम्मेत सभी महिलाओं को बिना बात एक अच्छा खासा मसला मिल गया. कोई कहने लगी अक ठीक होया - घने सयाने बने हांडे थे. कोए कहने लगी- घनी सयानी दो बर पोया करै. राजवंती अर् सरोज न्यूँ बोली- डा.जी, मैं बड़ी खुश हुई आपके जूते खूने पर. इब तो आप नै नये खरीदने ही पड़ेंगे. नही तो उन पुराने-फटे होया नै ही पहरे हांडे जांदे.
"घणा मायूस होन की जरुरत नही, डा. जी. बीस जनी सा. सौ-सौ रूपये कट्ठे करके दे दिवांगी. दो हजार के नये जूते खरीद लियो बढ़िया से. ऊपर के ल्योगे तो आपके लगैगे."- बिमला अर् अंग्रेजो नै डा. दलाल को दिलासा दी.
26 नवंबर,10 को सुबह नहा धो कर चाय पी और यहाँ से सीधे जलियांवाला बाग़ पहुचे. बाग में पहुँच कर दीवारों पर उन गोलियों के निशान देखे जो जनरल डायर ने 13 अप्रैल 1919 के दिन यहाँ इक्कठा हुए निहत्थे लोगों पर बिना कोई चेतावनी दिए शाम को 5:15 बजे चलवाई थी. आठ- दस मिनट की गोलाबारी में 1650 राउण्ड फायर किये गये. इस गोला-बारी में 379 लोग मारे गये और हजारों घायल हुए. गोलियों की मार से बचने के लिए सैकड़ों लोग यहाँ एक कुँए में कूद गये. इस कुँए से 120 लाश निकाली गयी थी.
जलियांवाला बाग देखने के बाद यह जत्था लुधियाना के लिए रवाना हुआ. रास्ते में जालंधर पहुचने से पहले ही जी.टी.रोड पर स्थित एक पंजाबी ढाबे पर दोपहर का भोजन किया. इसी ढाबे के प्रांगन में पौधों पर एक मांसाहारी कीट हथजोड़ा नजर आया तो महिलाओं ने इस कीट की विशेषताओं पर गीत गाना शुरू किया व इसकी एक वीडियो तैयार की. यहाँ से हम सीधे लुधियाना स्थित पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के पार्कर हॉउस पहुचे. इस निवास में तो राजपत्रित अधिकारीयों के लिए ठहरने की व्यवस्था है. अत: इन महिला किसानों को इस पार्कर हॉउस में ठिकाना नही मिला. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के पार्कर हॉउस में ठहरने का ठिकाना न मिलने पर डा. दलाल के मन में तो साहिर लुधियानवी ये बोल " ऐ रहबरे मुल्क -ओ-कोम जरा, आँखें तो उठा, नजरें तो मिला, कुछ हम भी सुने हमको भी बता" बार-बार मरोड़े मार रहे थे| इसी क्षण मिनी ने पूछ लिया कि सर, पार्कर की तो स्याही अर पैन देखे और सुने थे! यू पार्कर हॉउस आड़े ही सुना? इस अनपेक्षित सवाल पर तो एकदम डा.दलाल भी चौक गया. पर माड़ा-मोटा जवाब तो देना ही था. यूँ कहन लगा कि मिनी, यूँ हॉउस आला-पार्कर तो हो-ना-हो आर.डब्लू.पार्कर हो सकै सै जो 1954 में राक्फेलर फाऊंडेसन का चेयरमैन था. इस फाऊंडेसन ने द्विपक्षीय वैज्ञानिक निगम की साल हिंदुस्तान के दर्जनों कृषि-स्नातकोत्तर छात्रों को अमेरिका में पी.एचडी. करने के लिए छात्रवृति दी थी. पी.एचडी.का शोध-विषय था-भारत के विभिन सिंचित क्षेत्रों में मिट्टी की उर्वरता.और इसी पृष्ठभूमि में अपने यहाँ कृषि की दशा व् दिशा तय करने के लिए भारत और अमेरिका के विज्ञानिकों को मिला कर एक द्विपक्षीय वैज्ञानिक निगम का गठन हुआ. इस निगम की सिफारिशों पर ही हमारे देश के सिंचित क्षेत्रों में नौ कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना भूमि अनुदान पैटर्न पर पी.एल.480 स्कीम की मदद से हुई. इन नौ कृषि विश्वविद्यालयों में सतलुज, ब्यास व् रावी दरियाओं के जल से सिंचित क्षेत्र में लुधियाना स्तिथ पंजाब कृषि विश्वविद्यालय भी था. इन सबके बीच 1965 में अपने देश में गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के लिए लर्मा-रोज़ा, सोनारा-64 व् सोनारा-65 नामक उर्वरक-संवेदी उन्नत किस्मों का 18000 टन बीज आयात किया गया. निसंदेह गेहूं का उत्पादन बढ़ा, उर्वरकों की खेती में खपत बढ़ी. लेकिन साथ-साथ सत्तर के दशक में ही गेहूं की फसल में मंडूसी नामक खरपतवार भी किसानों को ठोसे दिखाने लगा था. अब इस पार्कर-हाउस ने दिखा दिए तो कोई खास बात नही! ठहरने की वैकल्पिक व्यवस्था हेतु इसी कैम्पस में स्थित समेटी के दफ्तर पहुंचे. पर इस संस्था के पास किसानों या प्रशिक्षणार्थियों को ठहराने की व्यवस्था नही मिली. इन महिला किसानों का डा.धवन से संवाद का सपना तो इतने में ही चकनाचूर हो चुका था. पर फिर भी ठहरना तो था ही. इसी के इंतज़ाम वास्ते यह जत्था पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के निदेशक (विस्तार) महोदय, डा, मुख्यतार सिंह गिल से मिला| इन्होने अगर-मगर के बाद महिला किसानों के इस जत्थे को कैरों किसान सदन के इंचार्ज से मिलने को कहा| निराशा से बोजिल दिल में एक आशा की छोटी सी किरण लिए, अब सारे जने कैरों किसान आवास पहुंचे व् इसके इंचार्ज महोदय से मुलाकात की| इंचार्ज महोदय ने महिलाओं को इस सराय में ठहराने में असमर्थता दिखाई| जब इनसे डा, मुख्यतार सिंह गिल से बात करने के लिए कहा गया तो साहब का जवाब था- आप लोगों की मुलाकात के समय, मैं वहीं था| डा.गिल ने मेरे को लिख कर आदेश तो दिए नहीं| ऐसे में, इन महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेवारी कौन ले| आप मर्दों को जितने चाहो ले आओ, हम यहाँ ठहरने की व्यवस्था कर देंगें| पौने पांच बजने को हैं, अब तो आप जल्दी करके होम साईंस की डीन से मिल लें| वो जरुर किसी होस्टल के कामन-रूम में आप लोगों के लिए रात काटने का जुगाड़ कर देंगी|
" पूत के पाँ पालने में ही देख लिए| इब आड़े क्यों धक्के खाओ", कमला अर नन्ही नै दखल दिया| महिला किसान क्लबों के गठन में प्रयासरत इस बेस्ट अवार्डी कृषि विश्वविद्यालय में महिला किसानों के ठहरने की व्यवस्था न होने पर हैरान इन महिला किसानों ने गैरटेम होने के बावजूद कुरुक्षेत्र के लिए रवाना होने में ही अपनी भलाई सोची| मनबीर ने कुरुक्षेत्र स्तिथ जैराम आश्रम के व्यवस्थापक से टेलीफोन पर बात की और आज की रात काटने के लिए इस आश्रम में कमरे बुक करवाए| कृषि विश्वविद्यालय से निकलकर यह जत्था ऊनी वस्त्रों की सस्ती खरीदारी के चक्कर में चौड़ा बाज़ार पहुँच गया और यहीं शाम के सात बजा दिए. अब ये जथा रात के अंधेरों को चीरता हुआ लुधियाना से कुरुक्षेत्र के लिए रवाना हुआ. रास्ते में इस राष्ट्रिय राजमार्ग-१ पर ही कहीं स्तिथ हवेली नामक एक आधुनिक ढाबे पर सांझ का खाना खाया. असली महिला किसानों को अपने यहाँ पहली बार देखकर हवेली का प्रबंधक बड़ा खुश हुआ और उसने हवेली के चाकरों को बड़े प्यार से खाना परोसने की हिदायते दी. वेटरों ने निसंदेह लज़ीज़ खाने की थालियाँ बड़े अदब से अपने इन ठेठ देहाती मेहमानों को परोसी. पर बिमला पंडित को इस लज़ीज़ खाने में रोटी और गँठे के अलावा कुछ भी लज़ीज़ नजर नही आया. इसीलिए शायद हवेली के ताम-झाम से बेफ़िकर बिमला इस थाली से केवल गँठे और रोटी उठाकर ही बड़े मज्जे से खाने लगी. इस नजारे को देखकर प्रतीक्षा में खड़ा चाकर उपेक्षित भाव से बिमला की तरफ देखकर कुटिल मुस्कान बिखेरने लगा. धरती पर मूत कर सोने वाले इन ग्राहकों से अनभ्यस्त इस वेटर के इस अजीब व्यवहार को किसी ने देखा और किसी ने नही. इस होटल से रवानगी के समय प्रबंधक महोदय द्वारा जत्थे को सड़क तक छोड़ने आते वक़्त प्रति-पुष्टि प्राप्त करने की कौशिश पर जरुर डा,दलाल ने इस गैरमामूली सी घटना का होले से जिक्र किया. यहाँ से रवाना होने के बाद तो मिनीबस राजपुरा होते हुए रात के सवा बारह बजे अम्बाला में सामान्य बस स्टैंड के पास एक चाय की दुकान पर रुक्की. सब ने चाय पी और कुरुक्षेत्र के लिए रवाना हुए. कुरुक्षेत्र पहुँच कर श्री जयराम विद्यापीठ आश्रम में रात्रि विश्राम के लिए कमरे खुलवाए. सभी कान बोचकर सो गये.
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Great job
ReplyDeleteइन्दु जी,
ReplyDeleteकिसानों के इस काम की प्रशंसा के लिये आपका आभार व प्रसार में आपके सर्वांगीण योगदान की अपेक्षा।